भारत में 65,000 से अधिक सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या 10 से भी कम है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता और संसाधनों के प्रभावी उपयोग को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं का मानना है कि ऐसी स्थिति में स्कूलों के एकीकरण (मर्जर) और बेहतर पहुँच सुनिश्चित करने जैसे कदमों पर विचार किया जाना चाहिए।
शिक्षा मंत्रालय के आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, 2024-025 शैक्षणिक सत्र में देशभर के 5,149 सरकारी स्कूलों में एक भी छात्र नामांकित नहीं था। यह स्थिति सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में गहराते संकट की ओर इशारा करती है।
इस समस्या का सबसे अधिक प्रभाव तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में देखने को मिला है। बिना किसी छात्र वाले कुल स्कूलों में से 70 प्रतिशत से अधिक केवल इन दो राज्यों में स्थित हैं, जो सरकारी स्कूल नेटवर्क में क्षेत्रीय असमानताओं को उजागर करता है।
ये आँकड़े हाल ही में लोकसभा में सांसद कार्ति पी. चिदंबरम और अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग द्वारा पूछे गए प्रश्नों के लिखित उत्तर में साझा किए गए। जानकारी UDISE Plus से ली गई है, जो स्कूल-स्तरीय डेटा का सरकारी पोर्टल है।
सिर्फ शून्य नामांकन वाले स्कूल ही नहीं, बल्कि 10 से कम छात्रों वाले स्कूलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। पिछले दो शैक्षणिक वर्षों में ऐसे स्कूलों की संख्या 24 प्रतिशत बढ़कर 2022–23 में 52,309 से 2024–25 में 65,054 हो गई। अब ये स्कूल देश के कुल सरकारी स्कूलों का 6.42 प्रतिशत हिस्सा बन चुके हैं, जो योजना और वास्तविक ज़मीनी जरूरतों के बीच बढ़ते अंतर को दर्शाता है।
शिक्षकों की तैनाती भी चिंता का विषय बनी हुई है। इसी अवधि में 1.44 लाख से अधिक शिक्षक ऐसे स्कूलों में नियुक्त पाए गए, जहाँ छात्र संख्या बेहद कम या शून्य है। इससे शिक्षक प्रबंधन, कार्यकुशलता और सार्वजनिक धन के उपयोग पर सवाल उठते हैं।
शिक्षा मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि शिक्षा संविधान की Concurrent List में आती है, इसलिए स्कूलों का संचालन, शिक्षकों की भर्ती और तैनाती की मुख्य जिम्मेदारी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों की होती है। केंद्र सरकार ने बताया कि वह समग्र शिक्षा अभियान के माध्यम से राज्यों को छात्र-शिक्षक अनुपात बनाए रखने और बुनियादी ढांचे को मजबूत करने में सहयोग प्रदान करती है।
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