दिसंबर 1914 में, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने अनौपचारिक रूप से लड़ाई रोक दी थी। इस ऐतिहासिक घटना को क्रिसमस ट्रूस (Christmas Truce) कहा जाता है। उस दौरान दुश्मन सैनिकों ने एक-दूसरे के साथ क्रिसमस कैरोल गाए, उपहारों का आदान-प्रदान किया, मृत साथियों का अंतिम संस्कार किया और यहां तक कि फुटबॉल भी खेला। यह युद्ध के बीच इंसानियत की सबसे मजबूत मिसालों में से एक माना जाता है।
24 दिसंबर 1914 की रात, पश्चिमी मोर्चे पर सन्नाटा केवल थकान की वजह से नहीं था। उत्तरी फ्रांस और बेल्जियम की बर्फीली खाइयों में तैनात ब्रिटिश और जर्मन सैनिक जो उस समय एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन थे ने कुछ ऐसा किया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने लड़ना बंद कर दिया।
उस समय युद्ध को शुरू हुए महज पांच महीने हुए थे, लेकिन हालात पहले ही बेहद भयावह हो चुके थे। तेज़ और निर्णायक युद्ध की उम्मीदें टूट चुकी थीं और लड़ाई खाइयों तक सिमट गई थी कीचड़, कांटेदार तार, चूहे, जूं और लगातार गोलाबारी के बीच। सैनिक मौत के बेहद करीब जी रहे थे। कई दिनों से उन्हें ढंग की नींद नहीं मिली थी। ठंड असहनीय थी और मनोबल टूटता जा रहा था।
क्रिसमस नजदीक था, लेकिन किसी आधिकारिक युद्धविराम की घोषणा नहीं हुई थी। दोनों पक्षों के सैन्य नेतृत्व को डर था कि भावनाएं अनुशासन को कमजोर कर देंगी। युद्ध को बिना रुके जारी रहना था।
लेकिन 24 दिसंबर की रात नो मैन्स लैंड के उस पार से कुछ अप्रत्याशित सुनाई दिया। ब्रिटिश सैनिकों ने जर्मन खाइयों से गाने की आवाज़ें सुनीं। अंधेरे में ‘स्टिले नाख्ट’ जिसे अंग्रेज़ साइलेंट नाइट कहते हैं की धुन तैरने लगी।
शुरुआत में संकोच था, लेकिन कुछ ब्रिटिश सैनिकों ने भी अपने क्रिसमस गीत गाने शुरू कर दिए। फिर वह पल आया, जो आज भी अविश्वसनीय लगता है जर्मन सैनिक लालटेन लेकर अपनी खाइयों से बाहर निकले, अंग्रेज़ी में “मैरी क्रिसमस” की शुभकामनाएं दीं और हाथ हिलाए।
धीरे-धीरे, एक नाज़ुक और अनौपचारिक युद्धविराम बन गया।
क्रिसमस की सुबह तक, कई इलाकों में दोनों पक्षों के सैनिक सावधानी से नो मैन्स लैंड में पहुंचे। उन्होंने हाथ मिलाए। सिगरेट, खाना, बटन, बैज और घर की तस्वीरें एक-दूसरे को दीं। कई जगहों पर वे उन शवों को दफनाने में भी साथ आए, जो हफ्तों से खाइयों के बीच पड़े थे। प्रार्थनाएं दोनों भाषाओं में हुईं।
कई सैनिकों के लिए यह पहली बार था जब उन्होंने “दुश्मन” को इंसान के रूप में देखा शिक्षक, क्लर्क, छात्र जो उनसे बहुत अलग नहीं थे। एक ब्रिटिश सैनिक ने बाद में लिखा कि यह “भाईचारे जैसा” अनुभव था।
और हां कम से कम एक जगह फुटबॉल भी खेला गया।
फ्रांस के फ्रेलिंघियन गांव के पास सैनिकों ने एक अस्थायी गेंद से फुटबॉल मैच खेला। स्कोर को लेकर मतभेद हैं, लेकिन असल मायने परिणाम के नहीं थे। कीचड़ से सने जूतों में हंसते-खेलते सैनिक जहां कुछ दिन पहले गोलियां चल रही थीं इस दृश्य ने इतिहास में अमिट छाप छोड़ दी।
यह हर जगह नहीं हुआ। यह ज्यादा दिनों तक नहीं चला। लेकिन इतना जरूर हुआ कि दोनों पक्षों की चिट्ठियों, डायरियों और सैन्य दस्तावेजों में दर्ज हो गया।
जब सैन्य नेतृत्व को इस युद्धविराम की खबर मिली, तो वे चिंतित हो उठे। उनका मानना था कि अगर सैनिक दुश्मन की इंसानियत देख लेंगे, तो उन्हें दोबारा लड़ने का आदेश कैसे दिया जाएगा?
इसके बाद सख्त निर्देश जारी किए गए ताकि भविष्य में ऐसा दोबारा न हो। त्योहारों के दौरान जानबूझकर गोलाबारी करवाई गई। कुछ यूनिट्स को हटा दिया गया या फटकार लगाई गई।
जनवरी 1915 तक युद्ध फिर अपनी क्रूर रफ्तार में लौट आया। क्रिसमस ट्रूस फिर कभी उसी पैमाने पर नहीं हुआ।
इस युद्धविराम ने युद्ध नहीं रोका। प्रथम विश्व युद्ध चार और वर्षों तक चला और लाखों जानें गईं। लेकिन यह घटना इसलिए याद की जाती है क्योंकि यह दिखाती है कि औद्योगिक युद्ध की क्रूर मशीनरी के बीच भी आम लोग कम से कम कुछ पलों के लिए इंसानियत चुन सकते हैं।
यह किसी नेता या जनरल का आदेश नहीं था। यह किसी संधि का हिस्सा नहीं था। यह सैनिकों की अपनी पहल थी यादों, भावनाओं और शांति के दिन की साझा भावना से उपजी।
इसीलिए, सौ साल से ज्यादा समय बाद भी, हर दिसंबर यह कहानी फिर सामने आती है एक परी कथा की तरह नहीं, बल्कि इतिहास की सच्ची मिसाल के रूप में।
1914 की एक ठंडी क्रिसमस सुबह, युद्ध थम गया था और इंसानियत आगे बढ़ आई थी।
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